मोटिवेशनल स्टोरी

श्री राम भक्ति की प्रेरणादायक कथाएँ

 

श्री राम जी की भक्तिमय कहानियाँ
श्री राम भक्ति प्रसंग

 

जनक ने सीता स्वयंवर में अयोध्या नरेश दशरथ को आमंत्रण क्यों नहीं भेजा ?
जनक ने सीता स्वयंवर में अयोध्या नरेश दशरथ को आमंत्रण क्यों नहीं भेजा ?
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रामु अमित गुन सागर थाह कि पावइ कोइ।*

*संतन्ह सन जस किछु सुनेउँ तुम्हहि सुनायउँ सोइ॥

भावार्थ:-श्री रामजी अपार गुणों के समुद्र हैं, क्या उनकी कोई थाह पा सकता है?

संतों से मैंने जैसा कुछ सुना था, वही आपको सुनाया॥

राजा जनक के शासनकाल में एक व्यक्ति का विवाह हुआ। जब वह पहली बार सज-सँवरकर ससुराल के लिए चला, तो रास्ते में चलते-चलते एक जगह उसको दलदल मिला, जिसमें एक गाय फँसी हुई थी, जो लगभग मरने के कगार पर थी।

उसने विचार किया कि गाय तो कुछ देर में मरने वाली ही है तथा कीचड़ में जाने पर मेरे कपड़े तथा जूते खराब हो जाएँगे, अतः उसने गाय के ऊपर पैर रखकर आगे बढ़ गया।

जैसे ही वह आगे बढ़ा गाय ने तुरन्त दम तोड़ दिया तथा शाप दिया कि जिसके लिए तू जा रहा है, उसे देख नहीं पाएगा, यदि देखेगा तो वह मृत्यु को प्राप्त हो जाएगी।

वह व्यक्ति अपार दुविधा में फँस गया और गौ-शाप से मुक्त होने का विचार करने लगा। ससुराल पहुँचकर वह दरवाजे के बाहर घर की ओर पीठ करके बैठ गया और यह विचार कर कि यदि पत्नी पर नजर पड़ी, तो अनिष्ट नहीं हो जाए।

परिवार के अन्य सदस्यों ने घर के अन्दर चलने का काफी अनुरोध किया, किन्तु वह नहीं गया और न ही रास्ते में घटित घटना के बारे में किसी को बताया। उसकी पत्नी को जब पता चला, तो उसने कहा कि चलो, मैं ही चलकर उन्हें घर के अन्दर लाती हूँ।

पत्नी ने जब उससे कहा कि आप मेरी ओर क्यों नहीं देखते हो, तो भी चुप रहा। काफी अनुरोध करने के उपरान्त उसने रास्ते का सारा वृतान्त कह सुनाया।

पत्नी ने कहा कि मैं भी पतिव्रता स्त्री हूँ। ऐसा कैसे हो सकता है? आप मेरी ओर अवश्य देखो। पत्नी की ओर देखते ही उसकी आँखों की रोशनी चली गई और वह गाय के शापवश पत्नी को नहीं देख सका।

पत्नी पति को साथ लेकर राजा जनक के दरबार में गई और सारा कह सुनाया। राजा जनक ने राज्य के सभी विद्वानों को सभा में बुलाकर समस्या बताई और गौ-शाप से निवृत्ति का सटीक उपाय पूछा।

सभी विद्वानों ने आपस में मन्त्रणा करके एक उपाय सुझाया कि, यदि कोई पतिव्रता स्त्री छलनी में गंगाजल लाकर उस जल के छींटे इस व्यक्ति की दोनों आँखों पर लगाए, तो गौ-शाप से मुक्ति मिल जाएगी और इसकी आँखों की रोशनी पुनः लौट सकती है।

राजा ने पहले अपने महल के अन्दर की रानियों सहित सभी स्त्रियों से पूछा, तो राजा को सभी के पतिव्रता होने में संदेह की सूचना मिली। अब तो राजा जनक चिन्तित हो गए।

तब उन्होंने आस-पास के सभी राजाओं को सूचना भेजी कि उनके राज्य में यदि कोई पतिव्रता स्त्री है, तो उसे सम्मान सहित राजा जनक के दरबार में भेजा जाए।

जब यह सूचना राजा दशरथ (अयोध्या नरेश) को मिली, तो उसने पहले अपनी सभी रानियों से पूछा। प्रत्येक रानी का यही उत्तर था कि राजमहल तो क्या आप राज्य की किसी भी महिला यहाँ तक कि झाडू लगाने वाली, जो कि उस समय अपने कार्यों के कारण सबसे निम्न श्रेणि की मानी जाती थी, से भी पूछेंगे, तो उसे भी पतिव्रता पाएँगे।

राजा दशरथ को इस समय अपने राज्य की महिलाओं पर आश्चर्य हुआ और उसने राज्य की सबसे निम्न मानी जाने वाली सफाई वाली को बुला भेजा और उसके पतिव्रता होने के बारे में पूछा। उस महिला ने स्वीकृति में गर्दन हिला दी।

तब राजा ने यह दिखाने कर लिए कि अयोध्या का राज्य सबसे उत्तम है, उस महिला को ही राज-सम्मान के साथ जनकपुर को भेज दिया। राजा जनक ने उस महिला का पूर्ण राजसी ठाठ-बाट से सम्मान किया और उसे समस्या बताई।

महिला ने कार्य करने की स्वीकृति दे दी। महिला छलनी लेकर गंगा किनारे गई और प्रार्थना की कि, ‘हे गंगा माता! यदि मैं पूर्ण पतिव्रता हूँ, तो गंगाजल की एक बूँद भी नीचे नहीं गिरनी चाहिए।’ प्रार्थना करके उसने गंगाजल को छलनी में पूरा भर लिया और पाया कि जल की एक बूँद भी नीचे नहीं गिरी।

तब उसने यह सोचकर कि यह पवित्र गंगाजल कहीं रास्ते में छलककर नीचे नहीं गिर जाए, उसने थोड़ा-सा गंगाजल नदी में ही गिरा दिया और पानी से भरी छलनी को लेकर राजदरबार में चली आयी।

राजा और दरबार में उपस्थित सभी नर-नारी यह दृश्य देक आश्चर्यचकित रह गए तथा उस महिला को ही उस व्यक्ति की आँखों पर छींटे मारने का अनुरोध किया और पूर्ण राजसम्मान देकर काफी पारितोषिक दिया। जब उस महिला ने अपने राज्य को वापस जाने की अनुमति माँगी, तो राजा जनक ने अनुमति देते हुए जिज्ञाशावश उस महिला से उसकी जाति के बारे में पूछा। महिला द्वारा बताए जाने पर, राजा आश्चर्यचकित रह गए।

सीता स्वयंवर के समय यह विचार कर कि जिस राज्य की सफाई करने वाली इतनी पतिव्रता हो सकती है, तो उसका पति कितना शक्तिशाली होगा?

यदि राजा दशरथ ने उसी प्रकार के किसी व्यक्ति को स्वयंवर में भेज दिया, तो वह तो धनुष को आसानी से संधान कर सकेगा और कहीं राजकुमारी किसी निम्न श्रेणी के व्यक्ति को न वर ले,

अयोध्या नरेश को राजा जनक ने निमन्त्रण नहीं भेजा, किन्तु विधाता की लेखनी को कौन मिटा सकता है? अयोध्या के राजकुमार वन में विचरण करते हुए अपने गुरु के साथ जनकपुर पहुँच ही गए और धनुष तोड़कर राजकुमार राम ने सीता को वर लिया।
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जब भगवान राम ने भक्त के लिए बनाई रसोई
जब भगवान राम ने भक्त के लिए बनाई रसोई

बहुत साल पहले की बात है। एक आलसी लेकिन भोलाभाला युवक था आनंद। दिन भर कोई काम नहीं करता बस खाता ही रहता और सोए रहता। घर वालों ने कहा चलो जाओ निकलो घर से, कोई काम धाम करते नहीं हो बस पड़े रहते हो। वह घर से निकल कर यूं ही भटकते हुए एक आश्रम पहुंचा। वहां उसने देखा कि एक गुरुजी हैं उनके शिष्य कोई काम नहीं करते बस मंदिर की पूजा करते हैं।

उसने मन में सोचा यह बढिया है कोई काम धाम नहीं बस पूजा ही तो करना है। गुरुजी के पास जाकर पूछा, क्या मैं यहां रह सकता हूं, गुरुजी बोले हां, हां क्यों नहीं?

लेकिन मैं कोई काम नहीं कर सकता हूं

गुरुजी : कोई काम नहीं करना है बस पूजा करना होगी

आनंद : ठीक है वह तो मैं कर लूंगा ...

अब आनंद महाराज आश्रम में रहने लगे। ना कोई काम ना कोई धाम बस सारा दिन खाते रहो और प्रभु मक्ति में भजन गाते रहो।

महीना भर हो गया फिर एक दिन आई एकादशी। उसने रसोई में जाकर देखा खाने की कोई तैयारी नहीं। उसने गुरुजी से पूछा आज खाना नहीं बनेगा क्या

गुरुजी ने कहा नहीं आज तो एकादशी है तुम्हारा भी उपवास है ।

उसने कहा नहीं अगर हमने उपवास कर लिया तो कल का दिन ही नहीं देख पाएंगे हम तो .... हम नहीं कर सकते उपवास... हमें तो भूख लगती है आपने पहले क्यों नहीं बताया?

गुरुजी ने कहा ठीक है तुम ना करो उपवास, पर खाना भी तुम्हारे लिए कोई और नहीं बनाएगा तुम खुद बना लो।

मरता क्या न करता

गया रसोई में, गुरुजी फिर आए ''देखो अगर तुम खाना बना लो तो राम जी को भोग जरूर लगा लेना और नदी के उस पार जाकर बना लो रसोई।

ठीक है, लकड़ी, आटा, तेल, घी, सब्जी लेकर आंनद महाराज चले गए, जैसा तैसा खाना भी बनाया, खाने लगा तो याद आया गुरुजी ने कहा था कि राम जी को भोग लगाना है।

लगा भजन गाने

आओ मेरे राम जी , भोग लगाओ जी

प्रभु राम आइए, श्रीराम आइए मेरे भोजन का भोग लगाइए.....

कोई ना आया, तो बैचैन हो गया कि यहां तो भूख लग रही है और राम जी आ ही नहीं रहे। भोला मानस जानता नहीं था कि प्रभु साक्षात तो आएंगे नहीं । पर गुरुजी की बात मानना जरूरी है। फिर उसने कहा , देखो प्रभु राम जी, मैं समझ गया कि आप क्यों नहीं आ रहे हैं। मैंने रूखा सूखा बनाया है और आपको तर माल खाने की आदत है इसलिए नहीं आ रहे हैं.... तो सुनो प्रभु ... आज वहां भी कुछ नहीं बना है, सबको एकादशी है, खाना हो तो यह भोग ही खालो...

श्रीराम अपने भक्त की सरलता पर बड़े मुस्कुराए और माता सीता के साथ प्रकट हो गए। भक्त असमंजस में। गुरुजी ने तो कहा था कि राम जी आएंगे पर यहां तो माता सीता भी आईं है और मैंने तो भोजन बस दो लोगों का बनाया हैं। चलो कोई बात नहीं आज इन्हें ही खिला देते हैं।

बोला प्रभु मैं भूखा रह गया लेकिन मुझे आप दोनों को देखकर बड़ा अच्छा लग रहा है लेकिन अगली एकादशी पर ऐसा न करना पहले बता देना कि कितने जन आ रहे हो, और हां थोड़ा जल्दी आ जाना। राम जी उसकी बात पर बड़े मुदित हुए। प्रसाद ग्रहण कर के चले गए। अगली एकादशी तक यह भोला मानस सब भूल गया। उसे लगा प्रभु ऐसे ही आते होंगे और प्रसाद ग्रहण करते होंगे।

फिर एकादशी आई। गुरुजी से कहा, मैं चला अपना खाना बनाने पर गुरुजी थोड़ा ज्यादा अनाज लगेगा, वहां दो लोग आते हैं। गुरुजी मुस्कुराए, भूख के मारे बावला है। ठीक है ले जा और अनाज लेजा।

अबकी बार उसने तीन लोगों का खाना बनाया। फिर गुहार लगाई

प्रभु राम आइए, सीताराम आइए, मेरे भोजन का भोग लगाइए...

प्रभु की महिमा भी निराली है। भक्त के साथ कौतुक करने में उन्हें भी बड़ा मजा आता है। इस बार वे अपने भाई लक्ष्मण, भरत शत्रुघ्न और हनुमान जी को लेकर आ गए। भक्त को चक्कर आ गए। यह क्या हुआ। एक का भोजन बनाया तो दो आए आज दो का खाना ज्यादा बनाया तो पूरा खानदान आ गया। लगता है आज भी भूखा ही रहना पड़ेगा। सबको भोजन लगाया और बैठे-बैठे देखता रहा। अनजाने ही उसकी भी एकादशी हो गई।

फिर अगली एकादशी आने से पहले गुरुजी से कहा, गुरुजी, ये आपके प्रभु राम जी, अकेले क्यों नहीं आते हर बार कितने सारे लोग ले आते हैं? इस बार अनाज ज्यादा देना। गुरुजी को लगा, कहीं यह अनाज बेचता तो नहीं है देखना पड़ेगा जाकर। भंडार में कहा इसे जितना अनाज चाहिए देदो और छुपकर उसे देखने चल पड़े।

इस बार आनंद ने सोचा, खाना पहले नहीं बनाऊंगा, पता नहीं कितने लोग आ जाएं। पहले बुला लेता हूं फिर बनाता हूं।

फिर टेर लगाई प्रभु राम आइए , श्री राम आइए, मेरे भोजन का भोग लगाइए...

सारा राम दरबार मौजूद... इस बार तो हनुमान जी भी साथ आए लेकिन यह क्या प्रसाद तो तैयार ही नहीं है। भक्त ठहरा भोला भाला, बोला प्रभु इस बार मैंने खाना नहीं बनाया, प्रभु ने पूछा क्यों? बोला, मुझे मिलेगा तो है नहीं फिर क्या फायदा बनाने का, आप ही बना लो और खुद ही खा लो....

राम जी मुस्कुराए, सीता माता भी गदगद हो गई उसके मासूम जवाब से... लक्ष्मण जी बोले क्या करें प्रभु...

प्रभु बोले भक्त की इच्छा है पूरी तो करनी पड़ेगी। चलो लग जाओ काम से। लक्ष्मण जी ने लकड़ी उठाई, माता सीता आटा सानने लगीं। भक्त एक तरफ बैठकर देखता रहा। माता सीता रसोई बना रही थी तो कई ऋषि-मुनि, यक्ष, गंधर्व प्रसाद लेने आने लगे। इधर गुरुजी ने देखा खाना तो बना नहीं भक्त एक कोने में बैठा है। पूछा बेटा क्या बात है खाना क्यों नहीं बनाया?

बोला, अच्छा किया गुरुजी आप आ गए देखिए कितने लोग आते हैं प्रभु के साथ.....

गुरुजी बोले, मुझे तो कुछ नहीं दिख रहा तुम्हारे और अनाज के सिवा

भक्त ने माथा पकड़ लिया, एक तो इतनी मेहनत करवाते हैं प्रभु, भूखा भी रखते हैं और ऊपर से गुरुजी को दिख भी नहीं रहे यह और बड़ी मुसीबत है।

प्रभु से कहा, आप गुरुजी को क्यों नहीं दिख रहे हैं?

प्रभु बोले : मैं उन्हें नहीं दिख सकता।

बोला : क्यों , वे तो बड़े पंडित हैं, ज्ञानी हैं विद्वान हैं उन्हें तो बहुत कुछ आता है उनको क्यों नहीं दिखते आप?

प्रभु बोले , माना कि उनको सब आता है पर वे सरल नहीं हैं तुम्हारी तरह। इसलिए उनको नहीं दिख सकता....

आनंद ने गुरुजी से कहा, गुरुजी प्रभु कह रहे हैं आप सरल नहीं है इसलिए आपको नहीं दिखेंगे, गुरुजी रोने लगे वाकई मैंने सबकुछ पाया पर सरलता नहीं पा सका तुम्हारी तरह, और प्रभु तो मन की सरलता से ही मिलते हैं।

प्रभु प्रकट हो गए और गुरुजी को भी दर्शन दिए। इस तरह एक भक्त के कहने पर प्रभु ने रसोई भी बनाई। यह भक्ति कथा लोकश्रुति पर आधारित है।

 

रामभक्ति में लीन
रामभक्ति में लीन

महायुद्ध समाप्त हो चुका था। जगत को त्रास देने वाला रावण अपने कुटुंब सहित नष्ट हो चुका था। कौशलाधीश राम के नेतृत्व में चहुँओर शांति थी।

राम का राज्याभिषेक हुआ। राजा राम ने सभी वानर और राक्षस मित्रों को ससम्मान विदा किया। अंगद को विदा करते समय राम रो पड़े थे। हनुमान को विदा करने की शक्ति तो श्रीराम में भी नहीं थी। माता सीता भी उन्हें पुत्रवत मानती थी। हनुमान अयोध्या में ही रह गए।

राम दिन भर दरबार में, शासन व्यवस्था में व्यस्त रहे। सन्धा जब शासकीय कार्यों से छूट मिली तो गुरु और माताओं का कुशलक्षेम पूछ अपने कक्ष में आए। हनुमान उनके पीछे-पीछे ही थे। राम के निजी कक्ष में उनके सारे अनुज अपनी-अपनी पत्नियों के साथ उपस्थित थे। वनवास, युद्ध, और फिर अंनत औपचारिकताओं के पश्चात यह प्रथम अवसर था जब पूरा परिवार एक साथ उपस्थित था। राम, सीता और लक्ष्मण को तो नहीं, कदाचित अन्य वधुओं को एक बाहरी, अर्थात हनुमान का वहाँ होना अनुचित प्रतीत हो रहा था। चूंकि शत्रुघ्न सबसे छोटे थे, अतः वे ही अपनी भाभियों और अपनी पत्नी की इच्छापूर्ति हेतु संकेतों में ही हनुमान को कक्ष से जाने के लिए कह रहे थे। पर आश्चर्य की बात कि हनुमान जैसा ज्ञाता भी यह मामूली संकेत समझने में असमर्थ हो रहा था।

अस्तु, उनकी उपस्थिति में ही बहुत देर तक सारे परिवार ने जी भर कर बातें की। फिर भरत को ध्यान आया कि भैया-भाभी को भी एकांत मिलना चाहिए। उर्मिला को देख उनके मन में हूक उठती थी। इस पतिव्रता को भी अपने पति का सानिध्य चाहिए। अतः उन्होंने राम से आज्ञा ली, और सबको जाकर विश्राम करने की सलाह दी। सब उठे और राम-जानकी का चरणस्पर्श कर जाने को हुए। परन्तु हनुमान वहीं बैठे रहे। उन्हें देख अन्य सभी उनके उठने की प्रतीक्षा करने लगे कि सब साथ ही निकले बाहर।

राम ने मुस्कुराते हुए हनुमान से पूछा, "क्यों वीर, तुम भी जाओ। तनिक विश्राम कर लो।"

हनुमान बोले, "प्रभु, आप सम्मुख हैं, इससे अधिक विश्रामदायक भला कुछ हो सकता है? मैं तो आपको छोड़कर नहीं जाने वाला।"

शत्रुघ्न तनिक क्रोध से बोले, "परन्तु भैया को विश्राम की आवश्यकता है कपीश्वर! उन्हें एकांत चाहिए।"

"हाँ तो मैं कौन सा प्रभु के विश्राम में बाधा डालता हूँ। मैं तो यहाँ पैताने बैठा हूँ।"

"आपने कदाचित सुना नहीं। भैया को एकांत की आवश्यकता है।"

"पर माता सीता तो यहीं हैं। वे भी तो नहीं जा रही। फिर मुझे ही क्यों निकालना चाहते हैं आप?"

"भाभी को भैया के एकांत में भी साथ रहने का अधिकार प्राप्त है। क्या उनके माथे पर आपको सिंदूर नहीं दिखता?

हनुमान आश्चर्यचकित रह गए। प्रभु श्रीराम से बोले, "प्रभु, क्या यह सिंदूर लगाने से किसी को आपके निकट रहने का अधिकार प्राप्त हो जाता है?"

राम मुस्कुराते हुए बोले, "अवश्य। यह तो सनातन प्रथा है हनुमान।"

यह सुन हनुमान तनिक मायूस होते हुए उठे और राम-जानकी को प्रणाम कर बाहर चले गए।

प्रातः राजा राम का दरबार लगा था। साधारण औपचारिक कार्य हो रहे थे कि नगर के प्रतिष्ठित व्यापारी न्याय मांगते दरबार में उपस्थित हुए। ज्ञात हुआ कि पूरी अयोध्या में रात भर व्यापारियों के भंडारों को तोड़-तोड़ कर हनुमान उत्पात मचाते रहे थे। राम ने यह सब सुना और सैनिकों को आदेश दिया कि हुनमान को राजसभा में उपस्थित किया जाए। रामाज्ञा का पालन करने सैनिक अभी निकले भी नहीं थे कि केसरिया रंग में रंगे-पुते हनुमान अपनी चौड़ी मुस्कान और हाथी जैसी मस्त चाल से चलते हुए सभा में उपस्थित हुए। उनका पूरा शरीर सिंदूर से पटा हुआ था। एक-एक पग धरने पर उनके शरीर से एक-एक सेर सिंदूर भूमि पर गिर जाता। उनकी चाल के साथ पीछे की ओर वायु के साथ सिंदूर उड़ता रहता।

राम के निकट आकर उन्होंने प्रणाम किया। अभी तक सन्न होकर देखती सभा, एकाएक जोर से हँसने लगी। अंततः बंदर ने बंदरों वाला ही काम किया। अपनी हँसी रोकते हुए सौमित्र लक्ष्मण बोले, "यह क्या किया कपिश्रेष्ठ? यह सिंदूर से स्नान क्यों? क्या यह आप वानरों की कोई प्रथा है?"

हनुमान प्रफुल्लित स्वर में बोले, "अरे नहीं भैया। यह तो आर्यों की प्रथा है। मुझे कल ही पता चला कि अगर एक चुटकी सिंदूर लगा लो तो प्रभु राम के निकट रहने का अधिकार मिल जाता है। तो मैंने सारी अयोध्या का सिंदूर लगा लिया। क्यों प्रभु, अब तो कोई मुझे आपसे दूर नहीं कर पाएगा न?"

सारी सभा हँस रही थी। और भरत हाथ जोड़े अश्रु बहा रहे थे। यह देख शत्रुघ्न बोले, "भैया, सब हँस रहे हैं और आप रो रहे हैं? क्या हुआ?"

भरत स्वयं को सम्भालते हुए बोले, "अनुज, तुम देख नहीं रहे! वानरों का एक श्रेष्ठ नेता, वानरराज का सबसे विद्वान मंत्री, कदाचित सम्पूर्ण मानवजाति का सर्वश्रेष्ठ वीर, सभी सिद्धियों, सभी निधियों का स्वामी, वेद पारंगत, शास्त्र मर्मज्ञ यह कपिश्रेष्ठ अपना सारा गर्व, सारा ज्ञान भूल कैसे रामभक्ति में लीन है। राम की निकटता प्राप्त करने की कैसी उत्कंठ इच्छा, जो यह स्वयं को भूल चुका है। ऐसी भक्ति का वरदान कदाचित ब्रह्मा भी किसी को न दे पाएं। मुझ भरत को राम का अनुज मान भले कोई याद कर ले, पर इस भक्त शिरोमणि हनुमान को संसार कभी भूल नहीं पाएगा। हनुमान को बारम्बार प्रणाम।"

 

रामायण में घास (दूब) के तिनके का रहस्य

रामायण में घास (दूब) के तिनके का रहस्य...

एक घास के तिनके का भी रहस्य है, जो हर किसी को नहीं मालूम क्योंकि आज तक हमने हमारे ग्रंथो को

सिर्फ पढ़ा, समझने की कोशिश नहीं की।

रावण ने जब माँ सीता जी का हरण करके लंका ले गया तब लंका मे सीता जी वट वृक्ष के नीचे बैठ कर चिंतन करने लगी। रावण बार बार आकर माँ सीता जी को धमकाता था, लेकिन माँ सीता जी कुछ नहीं बोलती थी। यहाँ तक की रावण ने श्री राम जी के वेश भूषा मे आकर माँ सीता जी को

भ्रमित करने की भी कोशिश की लेकिन फिर भी सफल नहीं हुआ,

रावण थक हार कर जब अपने शयन कक्ष मे गया तो मंदोदरी ने उससे कहा आप  तो राम का वेश धर कर गये थे, फिर क्या हुआ?

रावण बोला- जब मैं राम का रूप लेकर सीता के समक्ष गया तो सीता मुझे नजर ही नहीं आ रही थी ।

रावण अपनी समस्त ताकत लगा चुका था लेकिन जिस जगत जननी माँ को आज तक कोई नहीं समझ सका, उन्हें रावण भी कैसे समझ पाता !

रावण एक बार फिर आया और बोला मैं तुमसे सीधे सीधे संवाद करता हूँ लेकिन तुम कैसी नारी हो कि मेरे आते ही घास का तिनका उठाकर उसे ही घूर-घूर कर देखने लगती हो,

क्या घास का तिनका तुम्हें राम से भी ज्यादा प्यारा है?

रावण के इस प्रश्न को सुनकर माँ सीता जी बिलकुल चुप हो गयी और उनकी आँखों से आसुओं की धार बह पड़ी।

इसकी सबसे बड़ी वजह थी कि

जब श्री राम जी का विवाह माँ सीता जी के साथ हुआ,तब सीता जी का बड़े आदर सत्कार के साथ गृह प्रवेश भी हुआ। बहुत उत्सव मनाया गया। *प्रथानुसार नव वधू विवाह पश्चात जब ससुराल आती है तो उसके हाथ से कुछ मीठा पकवान बनवाया जाता है, ताकि जीवन भर घर में मिठास बनी रहे।*

इसलिए माँ सीता जी ने उस दिन अपने हाथों से घर पर खीर बनाई और समस्त परिवार, राजा दशरथ एवं तीनों रानियों  सहित चारों भाईयों और ऋषि संत भी भोजन पर आमंत्रित थे।

माँ सीता ने सभी को खीर परोसना शुरू किया, और भोजन शुरू होने ही वाला था की ज़ोर से एक हवा का झोका आया। सभी ने अपनी अपनी पत्तलें सम्भाली,सीता जी बड़े गौर से सब देख रही थी।

ठीक उसी समय राजा दशरथ जी की खीर पर एक छोटा सा घास का तिनका गिर गया, जिसे माँ सीता जी ने देख लिया। लेकिन अब खीर मे हाथ कैसे डालें? ये प्रश्न आ गया। माँ सीता जी ने दूर से ही उस तिनके को घूर कर देखा  वो जल कर राख की एक छोटी सी बिंदु बनकर रह गया। सीता जी ने सोचा 'अच्छा हुआ किसी ने नहीं देखा'।

लेकिन राजा दशरथ माँ सीता जी

के इस चमत्कार को देख रहे थे। फिर भी दशरथ जी चुप रहे और अपने कक्ष पहुचकर माँ सीता जी को बुलवाया ।

फिर उन्होंने सीताजी से कहा कि मैंने आज भोजन के समय आप के चमत्कार को देख लिया था ।

आप साक्षात जगत जननी स्वरूपा हैं, लेकिन एक बात आप मेरी जरूर याद रखना।

आपने जिस नजर से आज उस तिनके को देखा था उस नजर से आप अपने शत्रु को भी कभी मत देखना।

इसीलिए माँ सीता जी के सामने जब भी रावण आता था तो वो उस घास के तिनके को उठाकर राजा दशरथ जी की बात याद कर लेती थी।

*तृण धर ओट कहत वैदेही*

*सुमिरि अवधपति परम् सनेही*

*यही है उस तिनके का रहस्य* !

इसलिये माता सीता जी चाहती तो रावण को उस जगह पर ही राख़ कर

सकती थी, लेकिन राजा दशरथ जी को दिये वचन एवं भगवान श्रीराम को रावण-वध का श्रेय दिलाने हेतु वो शांत रही !

ऐसी विशालहृदया थीं हमारी जानकी माता !

जय हो प्रभु श्री राम जी की

 

केवल लक्ष्मण ही मेघनाद का वध कर सकते थे..
केवल लक्ष्मण ही मेघनाद का वध कर सकते थे..

क्या कारण था ?..पढ़िये पूरी कथा

हनुमानजी की रामभक्ति की गाथा संसार में भर में गाई जाती है। लक्ष्मणजी की भक्ति भी अद्भुत थी। लक्ष्मणजी की कथा के बिना श्री रामकथा पूर्ण नहीं है।  अगस्त्य मुनि अयोध्या आए और लंका युद्ध का प्रसंग छिड़ गया ।

भगवान श्रीराम ने बताया कि उन्होंने कैसे रावण और कुंभकर्ण जैसे प्रचंड वीरों का वध किया और लक्ष्मण ने भी इंद्रजीत और अतिकाय जैसे शक्तिशाली असुरों को मारा ॥

अगस्त्य मुनि बोले- श्रीराम बेशक रावण और कुंभकर्ण प्रचंड वीर थे, लेकिन सबसे बड़ा वीर तो मेघनाध ही था ॥ उसने अंतरिक्ष में स्थित होकर इंद्र से युद्ध किया था और बांधकर लंका ले आया था॥

ब्रह्मा ने इंद्रजीत से दान के रूप में इंद्र को मांगा तब इंद्र मुक्त हुए थे ॥ लक्ष्मण ने उसका वध किया, इसलिए वे सबसे बड़े योद्धा हुए ॥

श्रीराम को आश्चर्य हुआ लेकिन भाई की वीरता की प्रशंसा से वह खुश थे॥ फिर भी उनके मन में जिज्ञासा पैदा हुई कि आखिर अगस्त्य मुनि ऐसा क्यों कह रहे हैं कि इंद्रजीत का वध रावण से ज्यादा मुश्किल था ॥

अगस्त्य मुनि ने कहा- प्रभु इंद्रजीत को वरदान था कि उसका वध वही कर सकता था जो.....

(१) चौदह वर्षों तक न सोया हो,

(२) जिसने चौदह साल तक किसी स्त्री का मुख न देखा हो, और

(३) चौदह साल तक भोजन न किया हो ॥

श्रीराम बोले- परंतु मैं बनवास काल में चौदह वर्षों तक नियमित रूप से लक्ष्मण के हिस्से का फल-फूल देता रहा ॥

मैं सीता के साथ एक कुटी में रहता था, बगल की कुटी में लक्ष्मण थे, फिर सीता का मुख भी न देखा हो, और चौदह वर्षों तक सोए न हों, ऐसा कैसे संभव है ॥

अगस्त्य मुनि सारी बात समझकर मुस्कुराए॥ प्रभु से कुछ छुपा है भला! दरअसल, सभी लोग सिर्फ श्रीराम का गुणगान करते थे, लेकिन प्रभु चाहते थे कि लक्ष्मण के तप और वीरता की चर्चा भी अयोध्या के घर-घर में हो ॥

अगस्त्य मुनि ने कहा – क्यों न लक्ष्मणजी से पूछा जाए ॥

लक्ष्मणजी आए प्रभु ने कहा कि आपसे जो पूछा जाए उसे सच-सच कहिएगा॥

प्रभु ने पूछा- हम तीनों चौदह वर्षों तक साथ रहे फिर तुमने सीता का मुख कैसे नहीं देखा ?, फल दिए गए फिर भी अनाहारी कैसे रहे ?, और १४ साल तक सोए नहीं ? यह कैसे हुआ ?

लक्ष्मणजी ने बताया- भैया जब हम भाभी को तलाशते ऋष्यमूक पर्वत गए तो सुग्रीव ने हमें उनके आभूषण दिखाकर पहचानने को कहा ॥

आपको स्मरण होगा मैं तो सिवाए उनके पैरों के नुपूर के कोई आभूषण नहीं पहचान पाया था क्योंकि मैंने कभी भी उनके चरणों के ऊपर देखा ही नहीं.

चौदह वर्ष नहीं सोने के बारे में सुनिए – आप औऱ माता एक कुटिया में सोते थे. मैं रातभर बाहर धनुष पर बाण चढ़ाए पहरेदारी में खड़ा रहता था. निद्रा ने मेरी आंखों पर कब्जा करने की कोशिश की तो मैंने निद्रा को अपने बाणों से बेध दिया था॥

निद्रा ने हारकर स्वीकार किया कि वह चौदह साल तक मुझे स्पर्श नहीं करेगी लेकिन जब श्रीराम का अयोध्या में राज्याभिषेक हो रहा होगा और मैं उनके पीछे सेवक की तरह छत्र लिए खड़ा रहूंगा तब वह मुझे घेरेगी ॥

आपको याद होगा राज्याभिषेक के समय मेरे हाथ से छत्र गिर गया था।

अब मैं १४ साल तक अनाहारी कैसे रहा! मैं जो फल-फूल लाता था आप उसके तीन भाग करते थे. एक भाग देकर आप मुझसे कहते थे लक्ष्मण फल रख लो॥

आपने कभी फल खाने को नहीं कहा- फिर बिना आपकी आज्ञा के मैं उसे खाता कैसे?

मैंने उन्हें संभाल कर रख दिया॥ सभी फल उसी कुटिया में अभी भी रखे होंगे ॥ प्रभु के आदेश पर लक्ष्मणजी चित्रकूट की कुटिया में से वे सारे फलों की टोकरी लेकर आए और दरबार में रख दिया॥ फलों की गिनती हुई, सात दिन के हिस्से के फल नहीं थे॥

प्रभु ने कहा- इसका अर्थ है कि तुमने सात दिन तो आहार लिया था?

लक्ष्मणजी ने सात फल कम होने के बारे बताया- उन सात दिनों में फल आए ही नहीं :—

१--जिस दिन हमें पिताश्री के स्वर्गवासी होने की सूचना मिली, हम निराहारी रहे॥

२--जिस दिन रावण ने माता का हरण किया उस दिन फल लाने कौन जाता॥

३--जिस दिन समुद्र की साधना कर आप उससे राह मांग रहे थे, ।

४--जिस दिन आप इंद्रजीत के नागपाश में बंधकर दिनभर अचेत रहे,।

५--जिस दिन इंद्रजीत ने मायावी सीता को काटा था और हम शोक में रहे,।

६--जिस दिन रावण ने मुझे शक्ति मारी,

७--और जिस दिन आपने रावण-वध किया ॥

इन दिनों में हमें भोजन की सुध कहां थी॥ विश्वामित्र मुनि से मैंने एक अतिरिक्त विद्या का ज्ञान लिया था- बिना आहार किए जीने की विद्या, उसके प्रयोग से मैं चौदह साल तक अपनी भूख को नियंत्रित कर सका जिससे इंद्रजीत मारा गया ॥

भगवान श्रीराम ने लक्ष्मणजी की तपस्या के बारे में सुनकर उन्हें ह्रदय से लगा लिया।

जय सियाराम जय जय राम

जय  शेषावतार लक्ष्मण भैया की

जय संकट मोचन वीर हनुमान की

_जनजागृति हेतु लेख को पढ़ने के बाद साझा अवश्य करें...!!_

*जय श्री राम ⛳⛳*

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चुनौतियाँ वरदान है
चुनौतियाँ वरदान है

महाराज दशरथ को जब संतान प्राप्ति नहीं हो रही थी तब वो बड़े दुःखी रहते थे । पर ऐसे समय में उनको एक ही बात से हौंसला मिलता था जो कभी उन्हें आशाहीन नहीं होने देता था।

और वह था श्रवण के पिता का श्राप।

दशरथ जब-जब दुःखी होते थे तो उन्हें श्रवण के पिता का दिया श्राप याद आ जाता था। (कालिदास ने रघुवंशम में इसका वर्णन किया है)

श्रवण के पिता ने ये श्राप दिया था कि ''जैसे मैं पुत्र वियोग में तड़प-तड़प के मर रहा हूँ वैसे ही तू भी तड़प-तड़प कर मरेगा ''

दशरथ को पता था कि ये श्राप अवश्य फलीभूत होगा और इसका मतलब है कि मुझे इस जन्म में तो जरूर पुत्र प्राप्त होगा (तभी तो उसके शोक में मैं तड़प के मरूँगा)।

यानि यह श्राप दशरथ के लिए संतान प्राप्ति का सौभाग्य लेकर आया।

ऐसी ही एक घटना सुग्रीव के साथ भी हुई। वाल्मीकि रामायण में वर्णन है कि सुग्रीव जब माता सीता की खोज में वानर वीरों को पृथ्वी की अलग - अलग दिशाओं में भेज रहे थे । तो उसके साथ-साथ उन्हें ये भी बता रहे थे कि किस दिशा में तुम्हें कौन सा स्थान या देश  मिलेगा और किस दिशा में तुम्हें जाना चाहिए या नहीं जाना चाहिये।

प्रभु श्रीराम सुग्रीव का ये भगौलिक ज्ञान देखकर हतप्रभ थे।

उन्होंने सुग्रीव से पूछा कि सुग्रीव तुमको ये सब कैसे पता?

सुग्रीव ने उनसे कहा कि ''मैं बाली के भय से जब मारा-मारा फिर रहा था तब पूरी पृथ्वी पर कहीं शरण न मिली और इस चक्कर में मैंने पूरी पृथ्वी छान मारी और इसी दौरान मुझे सारे भूगोल का ज्ञान हो गया ''।

अब अगर सुग्रीव पर ये संकट न आया होता तो उन्हें भूगोल का ज्ञान नहीं होता और माता जानकी को खोजना कितना कठिन हो  जाता।

इसीलिए किसी ने बड़ा सुंदर कहा है :-

"अनुकूलता भोजन है, प्रतिकूलता विटामिन है और चुनौतियाँ वरदान है और जो उनके अनुसार व्यवहार करें वही पुरुषार्थी है "।

ईश्वर की तरफ से मिलने वाला हर एक पुष्प अगर वरदान है तो हर एक काँटा भी वरदान ही समझें।

*मतलब अगर आज मिले सुख से आप खुश हो तो कभी अगर कोई दुख, विपदा,अड़चन आजाये तो घबरायें नहीं क्या पता वो अगले किसी सुख की तैयारी हो।*

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