मोटिवेशनल स्टोरी

श्री कृष्ण भक्ति की प्रेरणादायक कथाएँ

 

श्री कृष्ण जी की भक्तिमय कहानियाँ
श्री कृष्ण भक्ति प्रसंग

 

कृष्ण से कृष्ण को मांगिए
*कृष्ण से कृष्ण को मांगिए*
*हृदय की इच्छाएं शांत नहीं होती हैं। क्यों???**
एक राजमहल के द्वार पर बड़ी भीड़ लगी थी।*
*किसी फकीर ने सम्राट से भिक्षा मांगी थी। सम्राट ने उससे कहा,''जो भी चाहते हो, मांग लो।''*
*दिवस के प्रथम याचक की कोई भी इच्छा पूरी करने का उसका नियम था।**उस फकीर ने अपने छोटे से भिक्षापात्र को आगे बढ़ाया और कहा,''बस इसे स्वर्ण मुद्राओं से भर दें।''
सम्राट ने सोचा इससे सरल बात और क्या हो सकती है! लेकिन जब उस भिक्षा पात्र में स्वर्ण मुद्राएं डाली गई, तो ज्ञात हुआ कि उसे भरना असंभव था।**वह तो जादुई था।
जितनी अधिक मुद्राएं उसमें डाली गई, वह उतना ही अधिक खाली होता गया!*
*सम्राट को दुखी देख वह फकीर बोला,''न भर सकें तो वैसा कह दें। मैं खाली पात्र को ही लेकर चला जाऊंगा!*
*ज्यादा से ज्यादा इतना ही होगा कि लोग कहेंगे कि सम्राट अपना वचन पूरा नहीं कर सके !*
*''सम्राट ने अपना सारा खजाना खाली कर दिया, उसके पास जो कुछ भी था, सभी उस पात्र में डाल दिया गया, लेकिन अद्भुत पात्र न भरा, सो न भरा।*
*तब उस सम्राट ने पूछा,''भिक्षु, तुम्हारा पात्र साधारण नहीं है। उसे भरना मेरी सामर्थ्य से बाहर है। क्या मैं पूछ सकता हूं कि इस अद्भुत पात्र का रहस्य क्या है?''*
*वह फकीर हंसने लगा और बोला,''कोई विशेष रहस्य नहीं। यह पात्र मनुष्य के हृदय से बनाया गया है।*
*क्या आपको ज्ञात नहीं है कि मनुष्य का हृदय कभी भी भरा नहीं जा सकता*?
*धन से, पद से, ज्ञान से- किसी से भी भरो, वह खाली ही रहेगा, क्योंकि इन चीजों से भरने के लिए वह बना ही नहीं है। इस सत्य को न जानने के कारण ही मनुष्य जितना पाता है, उतना ही दरिद्र होता जाता है।*
*हृदय की इच्छाएं कुछ भी पाकर शांत नहीं होती हैं। क्यों?*
*क्योंकि, हृदय तो परमात्मा को पाने के लिए बना है।''*
*शांति चाहिए ? संतृप्ति चाहिए ? तो अपने संकल्प को कहिए कि "भगवान श्रीकृष्ण" के सेवा के अतिरिक्त और मुझे कुछ भी नहीं चाहिए।
**"कृष्ण से कृष्ण को ही मांगिए ।"*

 

आधा_लड्डू
आधा_लड्डू..●●🌿🌹🌿
एक बार पश्चिम बंगाल के श्रीखण्ड नामक स्थान पर भगवान के एक भक्त, श्रीमुकुन्द दास रहते थे।
श्रीमुकुन्द दास के यहाँ भगवान श्रीगोपीनाथ जी का श्रीविग्रह (श्रीमूर्ति) थी, वह उनकी बहुत सेवा करते थे।
एक बार श्रीमुकुन्द दास जी को किसी कार्य के लिए बाहर जाना था, इसलिए उन्होने अपने पुत्र रघुनन्दन को बुलाकर कहा कि घर में श्रीगोपीनाथ जी की सेवा होती है, इसलिए बड़ी सावधानी से उनको भोग, इत्यादि लगाना।
यह सब अपने पुत्र को बताकर श्रीमुकुन्द दास जीअपने कार्य के लिए चले गये।.पिताजी के जाने के बाद रघुनन्दन अपने मित्रों के साथ खेलने चले गये।
दोपहर के समय माताजी ने आवाज़ देकर कहा कि "अरे रघुनन्दन, भोग तैयार है, आकर ठाकुर को लगा दे।"
रघुनन्दन खेल छोड़कर आये व हाथ-पैर धोकर भोग की थाली श्रीगोपीनाथ जी के आगे सजाई।
फिर श्रीगोपीनाथ जी से बोले:- "लो जी, आप ये खाइये, मैं कुछ देर में आकर थाली ले जाऊँगा।"
श्रीरघुनन्दन अभी बालक ही थे, इसलिए बड़े ही सरल भाव (बालक-बुद्धि) से रघुनन्दन ने श्रीगोपीनाथ जी से निवेदन किया,
फिर वे खेलने चले गये। कुछ देर बाद उन्हें याद आया कि गोपीनाथ जी उनकी प्रतीक्षा कर रहे होंगे, कि कब आप थाली लेने आयेंगे।
ऐसा सोच कर वह घर के मन्दिर में आये, आकर देखा कि भोग तो ऐसे का ऐसे ही रखा हुआ है, जैसा वे उसे छोड़ गये थे।.बालक रघुनन्दन ये देख घबरा गये और कहने लगे:- "अरे आपने इसे खाया क्यों नहीं, क्या गड़बड़ हो गयी, पिताजी को पता लगेगा तो बहुत डांटेंगे।"
ऐसा कहकर रघुनन्दन रोने लगे, फिर भी कुछ नहीं हुआ, गोपीनाथ जी ने खाना शुरु नहीं किया।
अब तो रघुनन्दन ज़ोर-ज़ोर से रोने लगे व हाथ जोड़ कर कहने लगे:- "आप खाओ, आप खाओ" और अनुनय-विनय करने लगे।
'भक्त-प्रेम के पाले पड़ कर प्रभु को नियम बदलते देखा....और श्रीगोपीनाथ जी प्रकट् हो गये, रघुनन्दन के सामने बैठकर खाने लगे।
खाने के उपरान्त श्रीगोपिनाथ जी फिर से मूर्ति बन गये, रघुनन्दन ने खुशी-खुशी थाली उठाई और माँ को दे दी।
माता ने खाली थाली देख सोचा कि अबोध बालक है, भूख लगी होगी, इसलिए स्वयं प्रसाद पा लिया होगा या मित्रों में बांट दिया होगा।
बालक को संकोच ना हो इसलिए माता ने बालक से कुछ पूछा ही नहीं।
शाम को श्रीमुकुन्द जी घर आये तो बालक रघुनन्दन से पूछा कि:- 'सेवा कैसी हुई?'
रघुनन्दन जी ने उत्तर दिया:- 'बहुत अच्छी'।
श्रीमुकुन्द दास जी ने कहा;- 'जाओ, कुछ प्रसाद ले आओ।'
रघुनन्दन ने उत्तर दिया, 'प्रसाद, वो तो गोपीनाथ जी सारा ही खा गये कुछ छोड़ा ही नहीं।'
यह सुनकर श्रीमुकुन्द दास जी ही बहुत हैरान हुए, उन्हें पता था कि इतना नन्हा बालक झूठ नहीं बोल सकता।
कुछ दिन बाद रघुनन्दन को बुलाकर कहा कि मैंने आज भी किसी कार्य से बाहर जाना है, इसलिए गोपीनाथ जी की ठीक ढंग से सेवा करना, उस दिन की तरह।
श्रीमुकुन्द दास जी घर से बाहर चले गये किन्तु कुछ ही समय बाद भोग लगने से पहले वापिस आ गये और घर में छिप गये।
माता ने उस दिन विशेष लड्डू तैयार किये थे।
उन्होंने बालक रघुनन्दन को बुलाकर कहा:- 'आज गोपीनाथ को ये लड्डू भोग लगाओ, और सब ना खा जाना।'
बालक माँ की बात समझा नहीं किन्तु गोपीनाथ जी के पास भोग लेकर चला गया।
मन्दिर में जाकर लड्डू से भरा थाल गोपीनाथ जी के आगे सजाया व हाथ में लड्डू लेकर गोपीनाथ जी की ओर करते हुये बोले:- 'माँ ने बहुत बड़िया लड्डू बनाये हैं,
मुझे खाने से मना किया है, आप खाओ, लो ये लो खाओ।'
रघुनन्दन फिर से रोना प्रारम्भ न कर दे इसलिए गोपीनाथ जी ने हाथ बड़ाया और लड्डू खाने लगे।
अभी आधा लड्डू ही खाया था कि श्रीमुकुन्द दास जी कमरे में आ गये।
आधा लड्डू जो बच गया था वो श्रीगोपीनाथ जी के हाथ में ऐसे ही रह गया, यह देखकर श्रीमुकुन्द जी प्रेम में विभोर हो गये।
उनके नयनों से अश्रुधारा चलने लगी, कण्ठ गद्-गद् हो गया और अति प्रसन्न होकर आपने रघुनन्दन को गोद में उठा लिया।
आज भी श्रीखण्ड में आधा लड्डू लिये श्रीगोपीनाथ जी विराजमान हैं, कोई भाग्यवान ही उनके दर्शन पा सकता है।
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ठाकुरजी का प्रशाद
ठाकुरजी का प्रशाद 
महाराष्ट में केशव स्वामी नाम के एक महात्मा थे। वे जानते थे कि भगवन्नाम जपने से कलियुग के दोष दूर हो जाते हैं।
यदि कोई शुरु में होठों से भगवान का नाम जपे, फिर कंठ में, फिर हृदय से जपे और नाम के अर्थ में लग जाय तो हृदय में भगवान प्रकट भी हो सकते हैं।
एक बार केशव स्वामी बीजापुर (कर्नाटक) गये। उस दिन एकादशी थी। रात को केशव स्वामी ने कहा, चलो, आज जागरण की रात्रि है, सब भक्त हैं तो प्रसाद ले आओ।
अब फलाहार में क्या लें ? रात्रि को तो फल नहीं खाना चाहिए।
बोले, सौंठ और शक्कर ठीक रहेगी क्योंकि शक्कर शक्ति देगी और सोंठ कफ का नाश करेगी।
अकेली शक्कर उपवास में नहीं खानी चाहिए। सोंठ और शक्कर ले आओ, ठाकुरजी को भोग लगायेंगे।
अब देर हो गयी थी, रात्रि के ग्यारह बज गये थे, दुकानवाले तो सब सो गये थे। किसी दुकानदार को जगाया।
लालटेन का जमाना था। सोंठ के टुकड़े और वचनाग के टुकड़े एक जैसे लगे तो अँधेरे-अँधेरे में दुकान वाले ने सोंठ की बोरी के बदले वचनाग की बोरी में से सोंठ समझ के पाँच सेर वचनाग तौल दिया।
अब वचनाग तो हलाहल जहर होता है, फोड़े-फुंसी की औषधि बनाने वाले वैद्य उससे ले जाते थे।
अँधेरे-अँधेरे में शक्कर के साथ वचनाग पीसकर प्रसाद बना दिया गया और ठाकुरजी को भोग लगा दिया।
ठाकुर जी ने देखा कि केशव स्वामी के सभी भक्त सुबह होते-होते मर जायेंगे। उनको तो बेचारों को खबर ही नहीं थी कि सोंठ की जगह यह हलाहल जहर आया है।
ठाकुरजी ने करूणा-कृपा करके प्रसाद में से जहर स्वयं ही खींच लिया।
सुबह व्यापारी ने देखा तो बोला, अरा.... रा... रा.... यह क्या हो गया !
सोंठ का बोरा तो ज्यों का त्यों पड़ा है, मैंने गलती से वचनाग दे दिया ! वे सब भक्त मर गये होंगे। मेरा तो सत्यानाश हो जायेगा।
व्यापारी डर गया, दौड़ा-दौड़ा आया और बोला, कल मैंने गलती से वचनाग तौल के दे दिया था, किसी ने खाया तो नहीं ?
केशव स्वामी बोले, वह तो रात को प्रसाद में बँट गया।
व्यापारी, कोई मरा तो नहीं ?नहीं..!! किसी को कुछ नहीं हुआ। केशव स्वामी और उस व्यापारी ने मंदिर में जाकर देखा तो ठाकुर जी के शरीर में विकृति आ गयी थी।
मूर्ति नीलवर्ण हो गयी, एकदम विचित्र लग रही थी मानो, ठाकुरजी को जहर चढ़ गया हो।
केशव स्वामी सारी बात समझ गये, बोले, प्रभु ! आपने भाव के बल से यह जहर चूस लिया लेकिन आप तो सर्वसमर्थ हैं।
पूतना के स्तनों से हलाहल जहर पी लिया और आप ज्यों-के-त्यों रहे, कालिय नाग के विष का असर भी नहीं हुआ तो यह वचनाग का जहर आपके ऊपर क्या असर कर गया ?
आप कृपा करके इस जहर के प्रभाव को हटा लीजिए और पूर्ववत् हो जाइये।
इस प्रकार स्तुति की तो देखते ही देखते व्यापारी और भक्तों से सामने भगवान की मूर्ति पहले जैसी प्रकाशमयी, तेजोमयी हो गयी।
समय कैसा भी हो स्थिति कैसी भी हो यदि भक्त के हृदय में भगवान् विराजमान है तो भक्त का अहित कभी हो ही नही सकता,
वह तोजोमय, लीलाधारी भगवान् अपने भक्तों की रक्षा हर प्रकार से करते ही हैं.
बोलो
श्री वृन्दावन बिहारी लाल की जय.,
बरसाने वाली श्री राधा रानी की जय,~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
।। लाडली सरकार राधा रानी की जय हो ।।~~~~~~~~~~~~~~~~~
((((((( जय जय श्री राधे )))))))...

 

मन के मंदिर में कृष्ण पूजन 
मन के मंदिर में कृष्ण पूजन 
भक्ति-रसामृत-सिंधु में एक कहानी है।
वहाँ वर्णित है कि एक ब्राह्मण- वह एक महान भक्त था। वह मंदिर की पूजा में बहुत शानदार सेवा पेश करना चाहता था। लेकिन उसके पास धन नहीं था ।
लेकिन एक दिन की बात है वह एक भागवत पाठ में बैठा हुआ था और उसने सुना कि कृष्ण मन के भीतर भी पूजे जा सकते हैं। तो उसने इस अवसर का लाभ उठाया क्योंकि वह एक लंबे समय से सोच रहा था कि कैसे बहुत शान से कृष्ण की पूजा करूं, लेकिन उसके धन पैसे नहीं था।
तो वह, जब वह यह समझ गया, कि मन के भीतर कृष्ण की पूजा कर सकते हैं, तो गोदावरी नदी में स्नान करने के बाद, वह एक पेड़ के नीचे बैठा हुआ था और अपने मन के भीतर वह बहुत गहनों के साथ लदे खूबसूरत सिंहासन का निर्माण कर रहा था।
सिंहासन पर भगवान के अर्च विग्रह को रखते हुए, वह अर्च विग्रह का गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा, कावेरी के जल के साथ अभिषेक कर रहा था।
फिर बहुत अच्छी तरह से फूल, माला के साथ अर्च विग्रह का श्रृंगार और पूजा कर रहा था।
फिर वह बहुत अच्छी तरह से भोजन पका रहा था, वह परमान्ना, मीठे चावल पका रहा था ।
तो वह परखना चाहता था, क्या वह बहुत गर्म था। क्योंकि परमान्ना ठंडा लिया जाता है । परमान्ना बहुत गर्म नहीं लिया जाता है। तो उसने परमान्ना में अपनी उंगली डाली और उसकी उंगली जल गई।
तब उसका ध्यान टूटा क्योंकि वहाँ कुछ भी नहीं था। केवल अपने मन के भीतर वह सब कुछ कर रहा था। तो ... लेकिन उसने अपनी उंगली जली हुइ देखी। तो वह चकित रह गया।
इस तरह, वैकुन्ठ से नारायण, मुस्कुरा रहे थे।  देवी लक्ष्मीजी ने पूछा, "आप क्यों मुस्कुरा रहे हैं ?" "मेरा एक भक्त इस तरह पूजा करता है । तो मेरे दूतों को तुरंत भेजो उसे वैकुन्ठ लाने के लिए।"
तो भक्ति-योग इतना अच्छा है कि भले ही आपके पास भगवान की भव्य पूजा के लिए साधन न हो, आप मन के भीतर यह कर सकते हो। यह भी संभव है।
हरे कृष्ण

 

ब्रज चौरासी कोस
ब्रज चौरासी कोस
एक दिन श्री राधा जी और श्रीकृष्ण जी अपने धाम श्रीगौलोक में विहार कर रहे थे, दोनों विहार में इतने मद मस्त थे कि, तभी उसी समय श्रीराधा रानी जी के भाई वहाँ से गुजरे।
श्रीराधा जी और श्रीकृष्ण जी दोनों ही उनको नहीं देखे और ना ही उनके तरफ ध्यान दिये जिस पर श्रीराधा रानी जी के भाई को क्रोध आगया कि, हम यहाँ से गुजर रहे हैं और ये लोग विहार में इतने मद मस्त हैंकि इनको हमारी ओर जरा भी ध्यान नहीं है।
जिस पर श्रीराधा रानी जी के भाई ने श्रीराधा रानी जी को और श्रीकृष्णजी को श्राप दे दिया कि आप लोग में जितना अधिक प्रेम है आप दोनों उतने ही दूर चले जाओगे।
श्राप देकर भाई तो चले गये। तब श्रीकृष्ण जी श्रीराधा रानी जी से बोले कि आपके भाई द्वारा दिए गये श्राप के फल को भोगने के लिए तो मृत्युलोक में जाना पड़ेगा। क्योंकि यहाँ तो इस श्राप को भोगने का कोई साधन नहीं है।
ये सुन कर श्रीराधा रानी जी रोने लगीं और भगवान श्रीकृष्ण जी से बोलीं कि हम तो मृत्युलोक नहीं जायेंगे क्यों कि वहाँ का लोक हमारे अनकूल नहीं है!
वहाँ पाप अधिक है पुन्य कम है। तब भगवान श्रीकृष्ण जी बोले कि चाहे वहाँ जो भी हो, श्राप भोगनेतो वहीँ जाना होगा।
श्रीराधा रानी जी मृत्युलोक में आने के लिए किसी भी प्रकार से तैयारनहीं हो रहीं थीं, तब अन्त में श्रीकृष्ण जी बोले कि एक उपाय है, क्यों ना हम इस गौलोक धाम को ही वहाँ ले चलें।
इस पर श्रीराधा रानी जी मृत्युलोक आने के लिए तैयार हो गयीं। तब भगवान श्रीकृष्ण जी सर्व प्रथम श्री यमुना जी को पृथ्वी ( धरती ) पर आने को कहा, फिर श्रीविरजा नदी का जल ( पानी ) श्रीयमुना जी में छोड़ा गया।
इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण जी गौलोक धाम से ( 84 ) चौरासी अँगुल गौलोक धाम की मिटटी पृथ्वी पर एक सीमित क्षेत्र चौरासी कोस में बर्षा की, 84 कोस बराबर 252 कि. मी.। श्री विरजा नदी का जल और श्रीगौलोक धाम की मिटटी चौरासी कोस के क्षेत्र में एक साथ आने के कारण इस क्षेत्र का नाम ब्रज क्षेत्र पड़ा।
इस ब्रज क्षेत्र में 12 वन, 24 उपवन, 20 कुण्ड और नन्द गाँव, बरसाना, गोकुल, गोवर्धन, वृन्दावन, मथुरा, कोसी, राधा कुण्ड आदि क्षेत्र इसके अंतर्गत आते हैं। (चौरासी अँगुल इस लिए कि धर्म शास्त्रों के अनुसार पृथ्वी पर हर मनुष्यका शरीर अपने हाथ कि अँगुली से चौरासी अँगुल का ही होता है)।
इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण जी गौलोक धाम के सभी पशु पक्षी इत्यादि को बोले कि आप श्रीराधा रानी जी कि सेवा में ब्रज में जाइये। तब जा कर श्रीराधा रानी जी सर्व प्रथम ब्रज क्षेत्र के बरसाने में श्रीबृसभान जी के यहाँ प्रगट हुयीं।
श्रीराधा रानी जी के ब्रज में आने के कई वर्ष बाद श्रीकृष्ण भगवान मथुरा में अपने मामा कंस के कारागृह में बन्द श्रीवासुदेव जी के यहाँ पधारे और बाल्यकाल कि सभी लीला श्रीराधा रानी जी के साथ ब्रज में ही किया।
इसके बाद श्रीकृष्ण जी तो ब्रज छोड़ कर चले गये, पर श्रीराधा रानी जी अपने भाई द्वारा दिए श्राप को ब्रज में ही बितायीं और बाद में अपने धाम गौलोक को चली गयी।
!! बोलो जय श्री राधे !!
श्री मद भागवत पुराण आदि में ऋषि - सन्तों का बर्णन है कि कलयुग मेंब्रज चौरासी कोस कि परिक्रमा लगाने से चौरासी जन्म के पापों से सहजही मुक्ति मिल जाती है।
मुक्ति कहे गोपाल से, मेरी मुक्ति बताओ । ब्रज रज जब माथे चड़े, मुक्ति मुक्त हो जाय ।।
ब्रज चौरासी कोस कि परिकम्मा जो देत । तो लख चौरासी कोस के पाप हरि हर लेत ।।

 

बांके बिहारी के चमत्कार कथा
बांके बिहारी के चमत्कार कथा
एक व्यक्ति पाकिस्तान से एक लाख रुपैये का रूहानी इत्र लेकर आये थे। क्योंकि उन्होंने संत श्री हरिदास जी महाराज औरबांके बिहारी के बारे में सुना हुआ था। उनके मन में आये की मैं बिहारी जी को ये इत्र भेंट करूँ। इस इत्र की खासियत ये होती है की अगर बोतल को उल्टा कर देंगे तो भी इत्र धीरे धीरे गिरेगा और इसकी खुशबु लाजवाब होती है।
ये व्यक्ति वृन्दावन पहुंचा। उस समय संत जी एक भाव में डूबे हुए थे। संत देखते है की राधा-कृष्ण दोनों होली खेल रहे हैं। जब उस व्यक्ति ने देखा की ये तो ध्यान में हैं तो उसने वह इत्र की शीशी उनके पास में रख दी और पास में बैठकर संत की समाधी खुलने का इंतजार करने लगा।
तभी संत देखते हैं की राधा जी और कृष्ण जी एक दूसरे पर रंग डाल रहे हैं। पहले कृष्ण जी ने रंग से भरी पिचकारी राधा जी के ऊपर मारी। और राधा रानी सर से लेकर पैर तक रंग में रंग गई। अब जब राधा जी रंग डालने लगी तो उनकी कमोरी(छोटा घड़ा) खाली थी।
संत को लगा की राधा जी तो रंग डाल ही नहीं पा रही है क्योंकि उनका रंग खत्म हो गया है। तभी संत ने तुरंत वह इत्र की शीशी खोली और राधा जी की कमोरी में डाल दी और तुरंत राधा जी ने कृष्ण जी पर रंग डाल दिया। हरिदास जी ने सांसारिक दृष्टि में वो इत्र भले ही रेत में  डाला। लेकिन आध्यात्मिक दृष्टि में वो राधा रानी की कमोरी में डाला।
उस भक्त ने देखा की इन संत ने सारा इत्र जमीं पर गिरा दिया। उसने सोचा में इतने दूर से इतना महंगा इत्र लेकर आया था पर इन्होंने तो इसे बिना देखे ही सारा का सारा रेत में गिरा दिया। मैंने तो इन संत के बारे में बहुत कुछ सुना था। लेकिन इन्होने मेरे इतने महंगे इत्र को मिट्टी में मिला दिया।
वह कुछ भी ना बोल सका। थोड़ी देर बाद संत ने आंखे खोली उस व्यक्ति ने संत को अनमने मन से प्रणाम किया।
अब वो व्यक्ति जाने लगा। तभी संत ने कहा,”आप अंदर जाकर बिहारी जी के दर्शन कर आएं।”
उस व्यक्ति ने सोचा की अब दर्शन करे या ना करें क्या लाभ। इन संत के बारे में जितना सुना था सब उसका उल्टा ही पाया है। फिर भी चलो चलते समय दर्शन कर लेता हूँ। क्या पता अब कभी आना हो या ना हो।
ऐसा सोचकर वह व्यक्ति बांके बिहारी के मंदिर में अंदर गया तो क्या देखता है की सारे मंदिर में वही इत्र महक रहा है और जब उसने बिहारी जी को देखा तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ बिहारी जी सिर से लेकर पैर तक इत्र में नहाए हुए थे।
उसकी आंखों से प्रेम के आंसू बहने लगे और वह सारी लीला समझ गया तुरंत बाहर आकर संत के चरणों मे गिर पड़ा और उन्हें बार-बार प्रणाम करने लगा। और कहता है संत जी मुझे माफ़ कर दीजिये। मैंने आप पर अविश्वास दिखाया। संत ने उसे माफ़ कर दिया और कहा की भैया तुम भगवान को भी सांसारिक दृष्टि से देखते हो लेकिन मैं संसार को भी आध्यात्मिक दृष्टि से देखता हूँ
बोलिए बांके बिहारी लाल की जय!
❖═══▩ஜ۩۞۩ஜ▩═══❖

 

उसका पता
उसका पता
रात के ढाई बजे था, एक सेठ को नींद नहीं आ रही थी,
वह घर में चक्कर पर चक्कर लगाये जा रहा था।
पर चैन नहीं पड़ रहा था ।
आखिर  थक कर नीचे उतर आया और कार निकाली
शहर की सड़कों पर निकल गया। रास्ते में एक मंदिर दिखा सोचा थोड़ी देर इस मंदिर में जाकर भगवान के पास बैठता हूँ।
प्रार्थना करता हूं तो शायद शांति मिल जाये।
वह सेठ मंदिर के अंदर गया तो देखा, एक दूसरा आदमी पहले से ही भगवान की मूर्ति के सामने बैठा था, मगर उसका उदास चेहरा, आंखों में करूणा दर्श रही थी।
सेठ ने पूछा " क्यों भाई इतनी रात को मन्दिर में क्या कर रहे हो ?"
आदमी ने कहा " मेरी पत्नी अस्पताल में है, सुबह यदि उसका आपरेशन नहीं हुआ तो वह मर जायेगी और मेरे पास आपरेशन के लिए पैसा नहीं है "
उसकी बात सुनकर सेठ ने जेब में जितने रूपए थे  वह उस आदमी को दे दिए। अब गरीब आदमी के चहरे पर चमक आ गईं थीं।
सेठ ने अपना कार्ड दिया और कहा इसमें फोन नम्बर और पता भी है और जरूरत हो तो निसंकोच बताना।
उस गरीब आदमी ने कार्ड वापिस दे दिया और कहा
"मेरे पास उसका पता है " इस पते की जरूरत नहीं है सेठजी
आश्चर्य से सेठ ने कहा "किसका पता है भाई
"उस गरीब आदमी ने कहा
"जिसने रात को ढाई बजे आपको यहां भेजा उसका"
।। जय श्री कृष्णा ।।🙏
इतने अटूट विश्वास से सारे कार्य पूर्ण हो जाते है
घर से जब भी बाहर जाये*
*तो घर में विराजमान अपने प्रभु से जरूर मिलकर जाएं*
*और*
*जब लौट कर आए तो उनसे जरूर मिले*
*क्योंकि*
*उनको भी आपके घर लौटने का इंतजार रहता है*
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जब कान्हा बने अपनी भक्त के देवर
जब कान्हा बने अपनी भक्त के देवर

एक लड़की थी जो कृष्ण जी की अनन्य भक्त थी। बचपन से ही कृष्ण भगवान का भजन करती थी। भक्ति करती थी, भक्ति करते-करते बड़ी हो गई, भगवान की कृपा से उसका विवाह भी श्री धाम वृंदावन में किसी अच्छे घर में हो गया। विवाह होकर पहली बार वृंदावन गई, पर नई दुल्हन होने से कहीं  जा न सकी, और मायके चली गई। और वह दिन भी आया जब उसका पति उसे लेने उसके मायके आया, अपने पति के साथ फिर वृंदावन पहुंच गई।

पहुंचते पहुंचते उसे शाम हो गई, पति वृंदावन में यमुना किनारे रूककर कहने लगा देखो! शाम का समय है, मैं यमुना जी में स्नान करके अभी आता हूं। तुम इस पेड़ के नीचे बैठ जाओ और सामान की देखरेख करना मैं  थोड़े ही समय में आ जाऊंगा यही सामने ही हूं, कुछ लगे तो मुझे आवाज दे देना, इतना कहकर पति चला गया और वह लडकी बैठ गई।

अब एक हाथ लंबा घूंघट निकाल रखा है, क्योकि गांव है,ससुराल है और वहीं बैठ गई, मन ही मन विचार करने लगी। कि देखो! ठाकुर जी की कितनी कृपा है उन्हें मैंने बचपन से भजा और उनकी कृपा से मेरा विवाह भी श्री धाम वृंदावन में हो गया। मैं इतने वर्षों से ठाकुर जी को मानती हूं परन्तु अब तक उनसे कोई रिश्ता नहीं जोड़ा?

फिर सोचती है ठाकुर जी की उम्र क्या होगी? लगभग 16 वर्ष के होंगे, मेरे पति 20 वर्ष के हैं उनसे थोड़े से छोटे हैं, इसलिए मेरे पति के छोटे भाई की तरह हुए, और मेरे देवर की तरह, तो आज से ठाकुर जी मेरे देवर हुए, अब तो ठाकुर जी से नया सम्बन्ध जोड़कर बड़ी प्रसन्न हुई और मन ही मन ठाकुर जी से कहने लगी। देखो ठाकुर जी ! आज से मै तुम्हारी भाभी और तुम मेरे देवर हो गए, अब वो समय आएगा जब तुम मुझे भाभी-भाभी कहकर पुकारोगे। इतना सोच ही रही थी तभी एक 10-15 वर्ष का बालक आ

या और उस लडकी से बोला - भाभी-भाभी ! लडकी अचानक अपने भाव से बाहर आई और सोचने लगी वृंदावन में तो मै नई हूं ये भाभी कहकर कौन बुला रहा है।

नई थी इसलिए घूंघट उठकर नहीं देखा कि गांव के किसी बड़े-बूढ़े ने देख लिया तो बड़ी बदनामी होगी। अब वह बालक बार-बार कहता पर वह उत्तर न देती बालक पास आया और बोला। भाभी! तनिक अपना चेहरा तो दिखाय दे। अब वह सोचने लगी अरे ये बालक तो बड़ी जिद कर रहा है इसलिए कस के घूंघट पकड़कर बैठ गई कि कही घूंघट उठकर देखन ले, लेकिन उस बालक ने जबरजस्ती घूंघट उठकर चेहरा देखा और भाग गया। थोड़ी देर में उसका पति आ गया, उसने सारी बात अपने पति से कही।

पति ने कहा - तुमने मुझे आवाज क्यों नहीं दी ? लड़की बोली - वह तो इतने में भाग ही गया था। पति बोला - चिंता मत करो, वृंदावन बहुत बड़ा थोड़े ही है। कभी किसी गली में खेलता मिल गया तो हड्डी पसली एक कर दूंगा फिर कभी ऐसा नहीं कर सकेगा। तुम्हे जहां भी दिखे, मुझे जरुर बताना। फिर दोनों घर गए, कुछ दिन बाद उसकी सास ने अपने बेटे से कहा- बेटा! देख तेरा विवाह हो गया, बहू मायके से भी आ गई। पर तुम दोनों अभी तक बांके बिहारी जी के दर्शन के लिए नहीं गए कल जाकर बहू को दर्शन कराकर लाना।

अब अगले दिन दोनों पति पत्नी ठाकुर जी के दर्शन के लिए मंदिर जाते है मंदिर में बहुत भीड़ थी। लड़का कहने लगा - देखो! तुम स्त्रियों के साथ आगे जाकर दर्शन करो, में भी आता हूं अब वह आगे गई पर घूंघट नहीं उठाती उसे डर लगता कोई बड़ा बुढा देखेगा तो कहेगा नई बहू घूंघट के बिना घूम रही है। बहूत देर हो गई पीछे से पति ने आकर कहा - अरी बाबली ! बिहारी जी सामने है, घूं घट काहे नाय खोले,घूंघट नाय खोलेगी तो दर्शन कैसे करेगी।

अब उसने अपना घूंघट उठाया और जो बांके बिहारी जी की ओर देखा तो बांके बिहारी जी कि जगह वही बालक मुस्कुराता हुआ दिखा तो एकदम से चिल्लाने लगी - सुनिये जल्दी आओ! जल्दी आओ ! पति पीछे से भागा-भागा आया बोला क्या हुआ? लड़की बोली - उस दिन जो मुझे भाभी-भाभी कहकर भागा था वह बालक मिल गया।

पति ने कहा - कहां है ,अभी उसे देखता हूं? तो ठाकुर जी की ओर इशारा करके बोली- ये रहा, आपके सामने ही तो है। उसके पति ने जो देखा तो अवाक्   रह गया और बोला तुम धन्य हो वास्तव में तुम्हारे ह्रदय में सच्चा भाव ठाकुर जी के प्रति है। मै इतने वर्षों से वृंदावन मै हूं मुझे आज तक उनके दर्शन नहीं हुए और तेरा भाव इतना उच्च है कि बिहारी जी के तुझे दर्शन हुए...

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